ज़माने ने हमें ये रंग अब कैसा दिखाया है ,
जो कल था खून अब उस खून को पानी बनाया है ......
बहुत दावे किये जाते रहे इंसान होने के ,
मगर किसने यहाँ इंसान का रिश्ता निभाया है ......
कहें दर्द-इ-दिल ए दोस्तों किस्से भला अपना ,
की हर सीने में दिल की जगह पत्थर छिपाया है ......
समझ में नहीं आता की माजरा क्या है ,
किसी की चाल है या आज यह बुरा वक़्त आया है .......
किसे समझाए हम की कोई समझना हीं न चाहे ,
अकल्वालों ने सबको अक्ल का दुश्मन बनाया है ......
कहाँ तक लिपटते जाए किन्ही पर्चायिओं से हम ,
की अपना हीं साया आज लगता पराया है .......
खुदा को या मुक्क़दर को भला हम किसलिए कोसें ,
की अपने हाथ से जब चमन अपना जलाया है ......
वहीँ हम बेहयाई से अक्ल उनको सिखाते हैं ,
जिन्होंने ऊँगली पकड़ कर हमको चलना सिखाया है ..........
मैं अपने हीं ग़मों से तड़पता हूँ चीखता हूँ अक्सर ,
ज़मानें के गमों ने तो और भी मुझे सताया है .......
ज़माने ने हमें यह रंग अब कैसा ................
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